कितने ही हाथों ने तुझे गूंधा, बेला, तवे पे फेंका है
लोहे की तपिश से उठा कर सीधा आँच पर सेका है
लौ पर भी तू ख़ुशी से फूल सी जाती है
तब जाकर किन भूखे हाथों में आती है
टुकड़े टुकड़े होकर तेरी हस्ती सिमट जाती है
निवाला दर निवाला भूख मिट जाती है
कहीं घी, चटनी, अचार, सब्जी तेरे बाराती हैं
तो कहीं नमक और प्याज ही तेरे साथी हैं
तेरी चाहत में क्या राजा, क्या रंक, सब भिखारी हैं
पर तेरी तो सिर्फ कुलबुलाती भूख से यारी है
कितने ही भूखों को तू शायर बनाती है
ग़ुरबत के मारों के सपनों में तू घर बनाती है
दुनिया तेरे लिए मरती, मिटती मिटाती है
पर तू क्षणभंगुर नादान, सिर्फ भूख मिटाती है
Very realistic poem. good.
ReplyDeleteWill b happy to see you back in Blog with your new creation......
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