Tuesday, June 7, 2011

Roti

कितने ही हाथों ने तुझे गूंधा, बेला, तवे पे फेंका है
लोहे की तपिश से उठा कर सीधा आँच पर सेका है
लौ पर भी तू ख़ुशी से फूल सी जाती है
तब जाकर किन भूखे हाथों में आती है
टुकड़े टुकड़े होकर तेरी हस्ती सिमट जाती है
निवाला दर निवाला भूख मिट जाती है
कहीं घी, चटनी, अचार, सब्जी तेरे बाराती हैं
तो कहीं नमक और प्याज ही तेरे साथी हैं
तेरी चाहत में क्या राजा, क्या रंक, सब भिखारी हैं
पर तेरी तो सिर्फ कुलबुलाती भूख से यारी है
कितने ही भूखों को तू शायर बनाती  है
ग़ुरबत के मारों के सपनों में तू घर बनाती है
दुनिया तेरे लिए मरती, मिटती मिटाती है
पर तू क्षणभंगुर नादान, सिर्फ भूख मिटाती है

Monday, May 9, 2011

Usey pataa hai.......

क्यों, क्या, कैसे, कब जाने
अब तो जो हो, बस रब जाने

ख़ुमारी में डगमगाते क़दमों की
मंजिल का वो ही सबब जाने

गुदगुदाते बरबस हंसी फूट पड़े 
बस वो ही ऐसे दो लब जाने

सहमे सकुचाते कैदी एहसासों का
मर्म समझे, मतलब जाने

उम्रदराज़ अंधेरों में टटोल रहे हैं राहें
किस पहर कटे ये शब जाने!